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रामचरित मानस


दोहा :


* जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।


ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ 74 क॥

भावार्थ:-यद्यपि बच्चा पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग के नाश के लिए माता बच्चे की उस पीड़ा को कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवाह नहीं करती और फोड़े को चिरवा ही डालती है)॥ 74 (क)॥

*तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।


तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ 74 ख॥

भावार्थ:-उसी प्रकार श्री रघुनाथजी अपने दास का अभिमान उसके हित के लिए हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥ 74 (ख)॥

चौपाई :


* राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥


जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥ 

भावार्थ:-हे हे गरुड़जी! श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। जब-जब श्री रामचंद्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत सी लीलाएँ करते हैं॥1॥

* तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥


जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥

भावार्थ:-तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्सव देखता हूँ और (भगवान्‌ की शिशु लीला में) लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ॥2॥

* इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥


निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3॥

भावार्थ:-बालक रूप श्री रामचंद्रजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुड़जी! अपने प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ॥3॥

* लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा॥4॥

भावार्थ:-छोटे से कौए का शरीर धरकर और भगवान्‌ के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँति के बाल चरित्रों को देखा करता हूँ॥4॥

दोहा :


* लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।


जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥ 75 क॥

भावार्थ:-लड़कपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन पड़ती है, वही उठाकर खाता हूँ॥ 75 (क)॥



* एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।


सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 75 ख॥

भावार्थ:-एक बार श्री रघुवीर ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किए। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही काकभुशुण्डिजी का शरीर (प्रेमानन्दवश) पुलकित हो गया॥ 75 (ख)॥

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